छत्तीसगढ़ उजाला
बिना लड़े हथियार डालने वाले और हार मानने वाले अफगानी सेना के बारे में सुनकर पूरी दुनिया हैरान हुई। अफगानिस्तान पर तालिबान का तेजी से कब्जा न केवल युद्ध के मैदान पर उनकी ताकत का प्रदर्शन था, बल्कि एक अयोग्य अफगान सेना के मनोबल का पतन भी था। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी कहा कि अफगान सेना व नेताओं ने बिना लड़े ही हथियार डाल दिए और राष्ट्रपति अशरफ गनी बिना लड़े ही देश छोड़कर भाग गए। ऐसे में ऊंगली अमेरिका की ओर ही उठी। सवाल पूछे गए कि अमेरिका ने नाटो सहयोगियों के साथ अफ़ग़ानिस्तान में पिछले 20 सालों में जिस सेना को तैयार किया था, क्या वो इतने निष्प्रभावी साबित हो गए कि अपने लिए लड़ भी नहीं पाए। क्या है इसके पीछे की कहानी कि जिस सेना को हथियार और प्रशिक्षण देने के लिए अमेरिका ने खरबों खर्च किए वे क्यों बिना संघर्ष किए मैदान छोड़ते गए।
अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने का फैसला अमेरिका ने बहुत पहले कर लिया था। दरअसल अमेरिका यह जान गया था कि अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों के सैनिकों में तालिबान के मुकाबले इच्छाशक्ति और जोश की भारी कमी है, और इसलिए तालिबान के हाथों उनकी हार तय है। अमेरिका ने यह बहुत पहले ही मान लिया था कि नशीले पदार्थों पर निर्भरता, जीतने की इच्छाशक्ति का अभाव और राष्ट्रभक्ति की भावना नहीं होने के कारण अफगानी सैनिक तालिबान के आगे कहीं नहीं ठहरते हैं। जबकि उनके शस्त्रागार तालिबान से अधिक उन्नत थे। वास्तव में, वे वर्षों से भ्रष्टाचार, खराब नेतृत्व, प्रशिक्षण की कमी और गिरते मनोबल से घिरे हुए थे। इसी बात को लेकर अमेरिकी सरकार के निरीक्षक लंबे समय से सरकार को चेतावनी दे रहे थे।
अमेरिका की यह आशंका सही भी निकली। अफगानिस्तान की सरकार और अफगानी सैनिकों ने तालिबान के सामने अपने घुटने टेक दिए और बड़े आराम से अफगानिस्तान को हथियाने दिया। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के फ़ैसले का बचाव कर रहे हैं और कहा कि उन्हें इसके लिए कोई पछतावा नहीं है।
अमेरिका की स्ट्रेटेजिक स्टडीज इंस्टीट्यूट एंड यूएस आर्मी वॉर कॉलेज की 2015 में आई ‘द स्ट्रेटेजिक लेसंस अनलर्न्ड फ्रॉम वियतनाम, इराक एंड अफगानिस्तान: व्हाई द अफगान नेशनल सेक्युरिटी फोर्सेस विल नॉट होल्ड, एंड द इम्पलिकेशंस फॉर द यूएस आर्मी इन अफगानिस्तान’ में कहा गया कि अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों के जवानों का मनोबल बहुत गिरा हुआ था। रिपोर्ट में तालिबान के खिलाफ चलाए गए अमेरिकी नेतृत्व वाली गठबंधन सेना के अलग-अलग सैन्य अभियानों के दौरान अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों के जवानों के व्यवहार को लेकर विशेषज्ञों की पूरी पड़ताल है। हालांकि इस रिपोर्ट में व्यक्त विचार लेखक एम क्रीस मैसन के बताए गए हैं और अमेरिकी रक्षा विभाग, सेना या अमेरिका के किसी विभाग से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
अफगानी जवानों के बारे में रिपोर्ट की मुख्य बातों को इस तरह समझिए
रिपोर्ट के मुताबिक अफगान सेना बहुत अच्छी नहीं है और वे नहीं लड़ेगें। वे कायर थे। ऐसा लग रहा था कि वास्तव में उन्हें अपने देश की परवाह नहीं थी। यदि जवानों में जीतने की कोई इच्छा नहीं है, तो स्थिति को बदलने के लिए और प्रशिक्षण देना भी पर्याप्त नहीं था।
प्रशिक्षण देने और उन्हें अत्याधुनिक तकनीक और हथियारों से लैस करने के लिए अरबों डॉलर का निवेश करने के बाद भी नतीजा संतोषनक नहीं निकला। रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान लड़ाकू के पास कोई औपचारिक सैन्य प्रशिक्षण नहीं था, उनके पास अत्याधुनिक, सुसज्जित हथियार नहीं थे, वे अक्सर गुफाओं में रहते थे। वे अविश्वसनीय कठिनाइयों को सहते हैं, वे युद्ध के मैदान में अफगानी सैनिकों से ज्यादा आक्रामक दिखाई देते हैं। तालिबानी लड़ाके अपने उद्देश्य के लिए मर-मिटने में विश्वास करते हैं। जबकि अफगानी जवानों में इस भावना की भारी कमी है। उनके अंदर राष्ट्रीय निष्ठा नहीं है, वे सिर्फ पैसों के लिए सेना में थे।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अमेरिकी सेना का साथ मिलने के बाद भी अफगानी जवानों में लड़ने की प्रेरणा नहीं आई और ना ही उनका मनोबल बढ़ा। उदाहरण के लिए, 2009 में कामदेश की लड़ाई में जब अमेरिकी सेना के जवानों के लिए बने कॉम्बैट आउटपोस्ट कीटिंग पर 300 सशस्त्र तालिबानियों ने हमला कर दिया था, तब अफगानी जवान अपने बिस्तरों के नीचे छिप गए थे। अमेरिकी सैनिक अक्सर अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों के जवानों की शिकायत करते थे। सीओपी कीटिंग में तैनात लातवियाई सलाहकारों ने अमेरिकी जांचकर्ताओं को बताया कि अफगान सैनिकों में “अनुशासन, प्रेरणा और पहल” की कमी थी।
इसी तरह 13 फरवरी, 2010 को, जब अमेरिकी नेतृत्व वाली गठबंधन सेना ने अफगानिस्तान युद्ध की शुरुआत के बाद से सबसे बड़ा सैन्य अभियान शुरू किया तो अफगानी सैनिकों ने उनका सहयोग नहीं किया। अमेरिकी सेना का निशाना दक्षिणी अफगानिस्तान में तालिबान का गढ़ मरजाह शहर था। उस लड़ाई के दौरान अफगानी सुरक्षा बलों के कई जवानों ने लड़ने से और अपने कर्तव्य का पालन करने से मना कर दिया। वे बाजार को लूटने में लग गए और हशीश पीते रहे। पूरे ऑपरेशन के दौरान कंपनी कमांडर छिपा हुआ लग रहा था।
कुछ सैनिकों को यह भी पता नहीं था कि उन्हें कैसे फायर करना है, हथियार कैसे पकड़ना है। जैसे ही विद्रोहियों की गोलियां उनके सिर के ऊपर से गुजरीं, कुछ सैनिक आकाश की ओर बेसुध नजरों से देखते रहे, उन्होंने हाथों से अपने कानों को दबा लिया। इस दौरान कुछ सैनिक रेंगने लगे, वे आश्चर्य में पड़ गए थे, और उनके हाथ में रखे हथियार बेकार साबित हो रहे थे। मशीन गनर को आसपास हो रही गोलीबारी के बावजूद नींद आ गई थी।
रिपोर्ट के मुताबिक किसी भी यूनिट में कोई एकता नहीं थी, वे अमेरिकी सैनिकों के लिए बोझ बन रहे थे। ज्यादातर अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों के जवानों में अनुशासन की कमी थी। अमेरिकी सैनिकों को लगता था कि उन्हें हमारी मदद या प्रशिक्षण की जरूरत नहीं है। एक प्लाटून हवलदार पर अमेरिकी सैनिकों के अभियान और मिशन की सारी जानकारी तालिबान को देने के एवज में पैसे लिए जाने की भी आशंका जताई गई थी।