जीत थियेटर की हार :
सिनेमा और सिनेमा हाल अब अतीत की यादें होते जा रहे हैं. मल्टीप्लेक्स थियेटरों ने पुराने सिनेमागृहों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया है. हमारे शहर की पुरानी टाकीजें या तो खड़ी-खड़ी खंडहर हो रही हैं या हास्पिटल और मार्केटिंग आर्केड में तब्दील हो रही हैं. जिस मनोहर, श्याम, लक्ष्मी, प्रताप, बिहारी, श्री गंगा, शिव, सत्यम, बलराम आदि टाकीजों में नाचती-गाती फ़िल्में लगा करती थी, वहां सन्नाटा पसरा हुआ है या तोड़-फोड़ मची हुई है.
हमारे शहर में एक सुसज्जित टाकीज, जीत थियेटर, जिसमें उच्चस्तरीय फ़िल्में प्रदर्शित हुआ करती थी. साफ़-सफाई एकदम फर्स्ट क्लास, मेंटीनेंस गजब. इस थियेटर का उद्घाटन २८ अप्रैल १९८९ को हुआ था, मनोजकुमार की फिल्म ‘क्लर्क’ के प्रदर्शन के साथ. यहीं पर फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ १४ महीने और फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ ९ महीनों तक चली.
इस थियेटर को मुंशीराम उपवेजा ने बनवाया था. मुंशीराम फर्श से अर्श तक उठने वाले प्रेरणादायक व्यक्ति रहे हैं, अभी भी हैं.
मुंशीराम का इतिहास रोचक है, मोहल्ला तारबाहर में एक चतुर खिलाड़ी लड़कपन की उम्र में आया, रहने नहीं, दूकान चलाने, वह भी राशन की। सीएमडी कालेज में पढ़ता, पढ़ता क्या था, नेतागिरी करता था। बातें करने और बातें बनाने में बेमिसाल। इलेक्शन जीतना हो या परीक्षा देना हो, वह सफलता के लिए किये गए हर उपाय को जायज़ मानता था। राशन की दूकान और मनमोहक भाषण के भरोसे उसकी तरक्की होती गई और एक दिन वह बिलासपुर की नगरपालिका का ‘डिप्टी मेयर’ बन गया।
मुंशीराम ने अपनी योग्यता का चौतरफा उपयोग किया और अब उस पर माँ लक्ष्मी की ‘किरपा’ बरस रही थी. उसने बिलासपुर का सबसे शानदार थियेटर ‘जीत’ को बनाया।
अब वह बिक गया, वहां कोई मार्केटिंग काम्प्लेक्स बनने वाला है इसलिए यह प्यारा थियेटर अब तोड़ा जा रहा है. उसमें चलने वाले घन की आवाज उस हर सिनेमा प्रेमी के दिल में टकरा रही है जिसने इस थियेटर में शान से बैठकर एक से एक फ़िल्में देखी थी. मेरे फेसबुक मित्र Ritesh Sharma ने मुझे आज फोन पर यह दुखद खबर दी तो मैं उस शानदार थियेटर को जमींदोज होते हुए देखने गया, सच में, दिल दुःख गया.
‘कल चमन था, आज इक सहरा हुआ,
देखते ही देखते ये क्या हुआ?’
(द्वारिका प्रसाद अग्रवाल)