काल को हम बांध नहीं सकते। वह स्वत: नियंत्रित है , अबाध है। देवों का आह्वान करते हुए हम सकल कामना सिद्धि का संकल्प व्यक्त करते हुए और फिर विदा करते हुए कहते हैं- ‘ गच्छ-गच्छ सुरश्रेष्ठ़ पुनरागमनाय च। ‘ हे देव , आप स्वस्थान को तो जाएं , परंतु फिर आने के लिए। कितनी सकारात्मक हमारी संस्कृति है , जिसका मूल है- जो मानव मात्र के लिए हितकारी हो , कल्याणकारी हो , वह पुन:-पुन: हमारे जीवन में आए। गत वर्ष के लिए भी क्या ऐसी विदाई देना हमारे लिए संभव नहीं ? यह प्रश्न अनुत्तरित है। यह आना-जाना , आगमन-प्रस्थान सब क्या है ? एक उत्तर है कि ये काल द्वारा नियंत्रित क्रिया- प्रतिक्रियाएं हैं। जो आया है , वह जाएगा। फिर जो गया है , वह भी आएगा। यह हमारी संस्कृति की मान्यता है। हाल ही में एक विद्वान से उनके परिवार में हुई मृत्यु पर शोक संवेदना में कहा- ‘ गत आत्मा को शांति प्राप्त हो। ‘ उन्होंने तुरंत ही टोकते हुए कहा- शांति प्राप्ति की बात तो पश्चिमी संस्कृति-सभ्यता की बात है। भारतीय परंपरा में तो उचित है- ‘ गत आत्मा को सद्गति प्राप्त हो। ‘ इसके पीछे का गूढ़ भाव नए वर्ष के आगमन और पुराने वर्ष की विदाई की वेला को पूरी सार्थकता प्रदान करता है। शब्द और अर्थ मिलकर ही काल का , काल की गति का अर्थात् परिवर्तन का बोध कराते हैं। काल (समय) निराकार है। अबूझ है। मानव ने समय को बांधने का बहुत प्रयास किया- पल , घड़ी , घंटा , दिन , सप्ताह , महीना , साल , मन्वन्तर… फिर भी समय कभी बंधा नहीं , कहीं ठहरता नहीं। किसी ने शायद काल के बारे में सही कहा है- मेरी जिंदगी/ मुसलसल सफर है/ जो मंजिल पे पहुंची/ तो मंजिल बढ़ी दी। अथर्ववेद में काल की और प्रकृति की इसी गति को नमन करते हुए प्रार्थना की गई है। जो नववर्ष के अवसर पर समूची मानवता के लिए अत्यंत सामयिक है- हे पृथिवी , जो हमसे द्वेष करे , जो शत्रुता करे , जो मन से या शस्त्र से पीडि़त करे , हे पूर्व कृत्यों वाली पृथिवी , उसे हमारे लिए ( सम्पूर्ण मानवता के लिए) नष्ट कर दो। एक साल (उदाहरण के लिए 2020) जाता है , नया साल ( 2021) आता है। ऐसे में मानव और काल के द्वंद्व , मानव और काल के साहचर्य या दोनों की श्रेष्ठता के सवाल चितिंत करते हैं। काल मनुष्य का भोग्य है या मनुष्य काल का। अनेक उत्तरों , तर्क-कुतर्क में न उलझते हुए हमारे ग्रंथों में इसका सीधा उत्तर देने की कोशिश की गई- ‘ न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ‘ अर्थात मनुष्य से बड़ा कुछ भी नहीं है। कवि गुरु रवींद्र नाथ ठाकुर ने भी कहा- ‘ सबारि ऊपर मानुष सत्य। ‘ मनुष्य ही सबसे बड़ा सत्य है। फणीश्वरनाथ रेणु ने श्रीमद् भगवद्गीता की ये पंक्तियां उद्धृत करते हुए लिखा- विधाता की सृष्टि में मानव ही सबसे शक्तिशाली है। उसको पराजित करना असंभव है। सचमुच मनुष्य शक्तिशाली है और वह प्रारंभ से बहुत हद तक समय का नियमन करने का प्रयास करता रहा है। फिर भी सत्य यह है कि मनुष्य केवल प्रस्तोता है , नियामक नहीं। हम काल को बांध नहीं सकते। मुट्ठी की रेत की भांति पल- पल 2020 बीता , अब बारी- 2021की है। यह भी बीत जाएगा। ‘ कालोस्मि भरतर्षभ ‘ कहकर कृष्ण ने काल की सार्वकालिक सत्ता को प्रतिपादित किया। इस सत्ता के आगे नत भाव से , साहचर्य के भाव से हम नया वर्ष मनाते हैं। काल ने जो दिया था , उसे स्वीकार करें और नए वर्ष में जो मिलेगा , उसको अंगीकार-स्वीकार करने के लिए हम पूरी तैयारी , पूरे जोश से तैयार रहें। इसी में पुरातन और नववर्ष के सन्धिकाल की सार्थकता है। यह सत्य है कि परिणाम पर मनुष्य का कोई नियंत्रण या दखल नहीं , पर नया साल भी पुराना होगा। इसलिए मनुष्य एक साल की अवधि के लिए अपने जीवन के कुछ नियामक लक्ष्य तो तय कर सकता है। नए साल का सूरज यही प्रेरणा लेकर आया है। जीवन के चरम लक्ष्य पीछे छूटते जा रहे हैं , खोते जा रहे हैं। ऐसे में नए वर्ष की शुरुआत अपने लक्ष्य निर्धारित करने का अच्छा अवसर है , आत्म निरीक्षण का अचूक मौका है यह। काल शाश्वत है। नए साल का आगमन और पुराने की विदाई यह हमारा कालबोध ही तो है। आगत का स्वागत भारतीय परम्परा के मूल में है। जो आया है , अतिथि है उसे अपना लो। काल के साथ समय के साथ चलना मनुष्य की नियति है , परंतु काल के कपाल पर कुछ अंकित करने का संकल्प मनुष्य की जिजीविषा का मूल है।