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सत्यजीत राय के सिनेमा पर रवींद्रनाथ की छाया……

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सत्यजीत राय के सिनेमा पर रवींद्रनाथ की छाया

“बहु दिन धरे, बहु कोश दुरे

बहु व्यय कोरे, बहु देश घुरे

देखते गियेछि पर्वत-माला, देखते गियेछि शिंधु

देखा होए ना चक्षु मेलिया

घर होते शुधु दुई पा फेलिया

सारा देश घुरे, देखा होए न एकटी घास उपरे

एक टी शिशिर बिंदु।”

(मैं कई वर्षों तक हजारों मील घूमा, खूब खर्च करके बहुत सारे देशों में घूमता रहा, पर्वतमालाएं-सागर देखता रहा, लेकिन इन आंखों ने उसे नहीं देखा जो मेरे घर से दो कदमों की दूरी पर ही था। पूरा देश घूमकर भी जो चीज दिखाई न पड़ सकी वह थी, मैदान में घास के शीर्ष पर टंगी ओस की एक बूंद)

      यह कविता विश्व कवि रवींद्रनाथ ने सत्यजीत रे की डायरी में उस समय लिखा था,जब रे अपनी छोटी उम्र में उनसे आटोग्राफ लेना चाहा था। उस समय गुरुदेव ‘विश्व भारती, शांतिनिकेतन’ विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में शिक्षा की नैसर्गिक रच रहे थे। आगे चलकर रे उसी संस्थान में चित्रकला की शिक्षा लिये थे। इन दोनों महान प्रतिभाओं के संबंध का यह शैशवकाल एक बुजुर्ग और एक बच्चे के मध्य का संबंध है, जो राय के लिये ताउम्र प्रेरणास्रोत बने रहे। आगे चलकर सत्यजीत राय उस छोटी सी कविता में अंतर्निहित मर्म और टैगोर के योगदान से इस कदर प्रभावित रहे कि वे खुद एक कवि, कथाकार, कलाकार, चित्रकार और फिल्मकार के रूप में स्थापित हुए और रवींद्रनाथ के उपन्यासों, कहानियों और उनके जीवन पर फिल्में बना डाले। 1941 में जब रवींद्रनाथ की मृत्यु हो जाती है तब रे का फिल्मी सफर शुरू होता है। एक को विश्व साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ‘नोबल’ मिलता है, तो दूसरे को सिनेमा का ‘आस्कर अवार्ड’ से सम्मानित किया जाता है। यह अलग-अलग काल खण्ड की भारतीय प्रतिभाओं के प्रति सर्वोच्च सम्मान का अद्भुत संयोग और संबंध को दर्शाता है।

रवींद्रनाथ ने भारतीय ही नहीं विश्व साहित्य, संस्कृति और दर्शन को बहुत ही गहराई से प्रभावित किया है। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, गीत-नाटक, और नृत्य-नाटक आदि बहु-विधाओं में सृजन किया है।सिर्फ रचना ही नहीं समाज को सुसंस्कृत करने के लिये ‘शांतिनिकेतन’ जैसे बहु-अनुशासनिक शैक्षणिक-सांस्कृतिक संस्थान (विश्वविद्यालय) की स्थापना किए । रवींद्रनाथ को पूरी दुनिया ‘विश्व-कवि’ और ‘गुरुदेव’ की उपाधियों और नोबल पुरस्कार विजेता के रूप में अच्छी तरह से जानती है।रवींद्रनाथ के उपन्यासों, कहानियों, नाटकों और उनके जीवन पर अनेक निर्देशकों ने विभिन्न भाषाओं में महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण किया है। मसलन ताशेर देश(सुधेंदू राय), चार अध्याय(कुमार साहनी),चोखेर बाली(ऋतुपर्णा घोष) आदि-आदि अनेक, जिनका विस्तार से यहां जिक्र करना असम्भव और अनावश्यक है। इन्हीं आदि-आदि अनेकों में से ‘सत्यजीत रे ’ एक अहम नाम है।पचास और साठ के दशक में सत्यजीत राय द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्मों ने उन्हें सार्थक विश्व सिनेमा के साथ एकाकार कर दिया था।

रवींद्र नाथ टैगोर का कला प्रेम सत्यजित राय के हृदय में बस गया था। शांतिनिकेतन की आबोहवा को राय स्वयं महसूस कर अपनी फ़िल्मी संसार में समाहित किया।सत्यजीत राय ने रवींद्रनाथ के दो उपन्यास(नष्ट नीड़, घरेबाइरे) और तीन कहानीयों (संपति’, ‘मोनिहार’ और ‘पोस्ट मास्टर’) पर सुंदर फिल्मों का निर्माण किया। इनके साथ-साथ उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र भी बनायी जो रवींद्रनाथ के जीवन पर अब तक का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ माना जाता है। मेरे इस आलेख के केंद्र में मुख्यतः वही फिल्में और एक वृत्तचित्र हैं, जिन पर बात करना मानीखेज़ भी है सर्वप्रथम उनके वृत्तचित्र ‘Rabindranath’ पर बात कर उनकी प्रामाणिक जीवन गाथा को समझना है। चूंकि रवींद्रनाथ का साहित्य, संस्कृति, गतिविधियां और दर्शन इतना व्यापक और वैविध्य भरा है कि 54 मिनट के वृत्तचित्र में समेटना कैसे सम्भव है?फिर भी सत्यजीत रे ने उनके मूल मर्म को प्रस्तुत कर इसे सम्भव कर दिखाया।प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू ने राय को सुझाव दिया था कि ‘गुरुदेव’की जीवनी पर एक डक्युमेंट्री बने। जिस पर 1958 से ही राय ने काम करना शुरू कर दिया था और टैगोर की जन्म सदी 7 अगस्त 1961 में रीलिज कर दी गयी थी। ठाकुर के जीवन की गतिविधियों पर विडियो बहुत ही कम उपलब्ध था इसलिये राय को मुख्यतः स्थिर चित्रों, आडियो और उनकी कलाकृतियों का प्रयोग करना पड़ा था। इस वृतचित्र को पुरा करने में उन्हें तीन फ़ीचर फ़िल्मों के बराबर परिश्रम करना पड़ा था। पृष्ठभूमि में ज्योतिंद्रमोइत्रा का संगीत एक अलग प्रकार से प्रयोग हुआ है। लेखन,निर्देशन,प्रोडक्शन खुद सत्यजीत राय का ही है। राय ने सौमित्र चटर्जी, सोभना गांगुली आदि कुछ पात्रों का इस्तेमाल अवश्य किये हैं। सौमेंदू राय ने सिनेमाटोग्राफी और सम्पादन दुलाल दत्त ने किया था। वृत्तचित्र का प्रारम्भ सत्यजीत राय के नेरेशन में उस दृश्य के साथ शुरू होती है, जब विश्व कवि की शवयात्रा कलकत्ता में निकल रही है।

जिसमें टैगोर के खानदान की पीढ़ियों का परिचय देते हुये उनकी शिक्षा-दीक्षा का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। पहला ड्रामा-ओपेरा‘ वाल्मिकी प्रतिभा’ उसके संगीत और अन्य पर चर्चा होती है। विश्वभारती, शांतिनिकेतन, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, गीतांजलि, नोबल, देशी-विदेशी यात्रा आदि अनेक सूत्रों के स्रोतों का समाहार पेश करते हैं। यह डाक्युमेंट्री भारतीय नवजागरण के राजाराम मोहन राय से सम्बंधित करते हुये उनके द्वारा मृत्यु से पूर्व विश्व मानवता को दिये गये इस संदेश और चेतावनी से खत्म होती है कि “सभ्यता खतरे में है”। इस प्रकार से राय 54 मिनट में ही रवींद्रनाथ के जीवन, दर्शन, साहित्य, संस्कृति और गतिविधियों को प्रस्तुत कर मात्र वृत्तचित्र ही नहीं पेश करते हैं बल्कि उन्हें आत्मसात करके उनकी अगली कड़ी के रूप में खुद को जोड़ते हुये प्रस्तुत हो रहे होते हैं।

       सत्यजीत राय ने रवींद्रनाथ के अनमोल और विराट सहित्य से तीन लघु कहानीयों को एक फिल्म तीन कन्या में पिरोकर प्रस्तुत किया। अगर वृत्तचित्र को अलग कर दिया जाय तो रवींद्रनाथ पर यह पहली फिल्म है। जिसका प्रदर्शन गुरुदेव की जन्मसदी वर्ष 1961 में ही करते हैं। यह वह कालखंड है जब राय विश्व सिनेमा में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर परिपक्वता और विविधता की तरफ अग्रसर हो चुके होते हैं। ‘पाथेर पांचाली(1955),’ अपराजितो(1957), पारस- पत्थर(1958), जलसाघर(1958), अपुर संसार (1959), देवी(1960) जैसी फिल्मों से विश्व स्तर पर धूम मचा और आस्कर अवार्ड की पूर्वपीठिका रच चुके होते हैं। इटली और फ्रांस के महान निर्देशकों का प्रभाव सत्यजीत राय पर पड़ा था। इटली के नव-यथार्थवादी फिल्मकार ‘वित्तोरियो डिसिका’ने विश्व सिनेमा को प्रभावित किया था, सत्यजीत राय स्वयं मानते थे कि उनकी फिल्म ‘पाथेर पांचाली’(1955) पर इतालवी फिल्मकार विट्टोरियो डिसिका’की कृति ‘बाइसकिल थीफ’(1948) और फ्रांसीसी फिल्मकार‘ ज्यां रेनुआ’ की ‘दि रिवर’(1951) का असर है।“ राय पर यूरोपीय फिल्मों के असर के बावजूद भी अपने रवींद्रनाथ उनके अंतर्मन में बैठे हुये थे। यही एक किस्म की देशज आधुनिकता है, जो उन्हें रवींद्रनाथ के जीवन और साहित्य पर फिल्मों का निर्माण करने के लिये प्रेरित किया, और शुरुआत हुई ‘तीन कन्या’ से। 

‘तीन कन्या’ रवींद्रनाथ की तीन लघु कहनियों ‘पोस्ट मास्टर’, ‘मोनिहार’ और ‘संपति’ को मिलाकर बनायी गयी है। संपति’ जो आखिरी भाग है। इसमें मुख्य पात्र सौमित्र चट्टोपाध्याय और अपर्णा सेन हैं। पोस्ट मास्टर वाले हिस्से में चंदना बनर्जी, नृपति चत्तोपाध्यय और अनिल चत्तर्जी हैं, जब्कि मनिहारा में काली बनर्जी, कनिका मजुमदार और कुमार राय व अन्य हैं। दरअसल तीनों कहानियों में अलग-अलग तीन स्त्री-पुरुष पात्र हैं, जिन्हे ‘तीन कन्या’ त्रयी में पिरोकर राय प्रस्तुत करते हैं। इसे स्त्री-त्रयी (वोमेनट्रिलोजी) के नाम से भी जाना जाता है। सम्पति भाग के प्रथम दृश्य एक नदी, नाव, पृष्ठभूमि में बजता सुंदर सा लोक संगीत, किनारे खड़ी निश्छल कौतुक हो ताकती एक बंगाली गवंई किशोरी और नाव से उतरता हुआ बंगाली भद्र पुरुष जो नदी के किनारे फिसल जाता है और कीचड़ में लिथड़ जाता है। जिसे देख कर लड़की हंसती है। पूरा दृश्य भद्रलोक की नजर से एक हास्य सृजित करता है लेकिन उसके मुल में उस परिवेश की विद्रूपता भी प्रदर्शित होती है। और सबसे उपर उस किशोरी(मीनू) का निर्मल जादू दर्शक के सिर पर चढ़ कर बोलता है, सम्मोहित करता है और गरीबी की निश्छल, अल्हड़ हंसी-ठिठोली मुग्ध करती है।  फिल्म में सभी उसे मीनू नाम से पुकारते हैं, जबकि असल नाम मृनमयी है। हरेक चीजों को उसकी नजर से देखने/दिखाने की सफल कोशिश करते हैं सत्यजीत राय। जिसमें प्रकृत्ति का महासाम्राज्य, दृष्टि और दर्शन है। शादी से पूर्व और पश्चात ‘झूला’ का अर्थ बदल जाता है, साथ ही उसकी आजादी, निश्छलता, अल्हड़ता और भी बहुत कुछ मुरझाने लगता है। एक बहुत ही मार्मिक दृश्य है जब मीनू को शादी के बाद उसके अलहड़पन पर लगाम लगाने के लिये उसे एक कमरे में बंद कर दिया जाता है। वह बाहर निकलने के लिये बेचैन होकर सारा सामान उलट-पलट और तोड़ डालती है। बंगाली भद्रलोक की वैवाहिक प्रक्रिया की निर्ममता और एक सहज स्त्री द्वारा उसका विखंडन का प्रतीक बन जाता है यह दृश्य।    

पोस्टमास्टर का पहला दृश्य भी एक बच्ची से ही शुरु होता है। नदी प्रकृत्ति की विराटता स्त्री की सहज व्यापकता के साथ एकाकार होकर अभिव्यक्त होती है। तीसरी ‘मनिहार’ में भी नदी, खंडहर, भूत-प्रेत के बहाने एक स्त्री की कथा उपस्थित है। लेकिन पहली दोनों में जहां स्त्री और प्रकृत्ति अपनी वांङमयता के साथ भद्रलोक की संस्कृति और संस्कार पर भारी पड़ती है, वहीं ‘मनिहार’ में बंगाली भद्र(सामंती) वर्ग के खंडहर का सम्पत्ति के प्रति पुरुष और स्त्री के आकर्षण और परस्परिक द्वंद्व प्रमुखता से प्रदर्शित होता है। भूत-प्रेत, रहस्य रोमांच का सहारा यथार्थ को उभाड़ने के लिये लिया गया है। इसे देखते हुये किसी नाटक देखने का अनुभव होता है। यहां कुलीन स्त्री के रूप को बखूबी प्रदर्शित किया गया है। इसे हम पूर्व की प्रकृत्तिगामी विचार/स्त्री से तुलनात्मक रुप में भी देख सकते हैं। जो एक अलग अर्थ में आधुनिकता का लबादा ओढ़े हुये है। एक सूत्र में कहा जाय तो जहां आधुनिकता अत्यधिक होगी वहां प्रकृत्ति की व्यापकता कम होती जायेगी। तीन कन्या की त्रयी में एक सहज हास्यबोध के साथ करुणा का काव्य है, तो परम्परा का विघटन और पुनः जुड़ाव की निरंतरता है, विवाह व्यवस्था पर चुपके-चुपके से विमर्श भी है। सब मिलाकर स्त्री की उदात्त भावनाओं और बौद्धिकता में प्रकृत्ति का एकाकार या प्रकृति में मनुष्य का समाहार है ‘तीन कन्या’।

       ‘तीन कन्या’ के बाद रवींद्रनाथ की कृतियों को पर्दे पर लाने के लिये ‘राय’ अब एकाग्रता और निरंतरता तक पहुंच चुके होते हैं। पहले डक्युमेंट्री, फिर ‘तीन कन्या’ और अब उनके औपन्यासिक कहानी ‘नष्ट नीड़’ पर खुबसूरत और चर्चित फिल्म ‘चारूलता’, जिसे 1964 में प्रदर्शित करते हैं। तब तक ‘राय’ विविध प्रकार के प्रयोग करते हुये विश्व सिनेमा में एक ‘राय स्कूल’ के रूप में  स्थापित हो चुके थे। उसी समय आती है ‘चारूलता’, जिसे बहुत से आलोचक इनकी सबसे निष्णात फ़िल्म मानते हैं।मूल ‘नष्टनीड़’ में 19वीं शताब्दी की एक अकेली स्त्री की कहानी है, इसमें कुलीन वर्ग के विवेक और बौद्धिक विचारों के प्रति जागरूकता है । रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘नष्ट नीड़’ पर आधारित यह फिल्म बंगाल के नवजागरण काल की है जहां बदलते सामाजिक दर्शन का प्रभाव साफ-साफ देखा जा सकता है । चारुलता को अपने देवर अमल से प्रेम होने लगता है। यह एक विवाहित स्त्री का पर पुरुष पर अनुरक्त होना उस दौर में एक क्रांतिकारी कदम था । स्त्री अपना जीवन स्वयं अपने तरीके से जीना चाहती है। इस फिल्म को आज भी कई फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।  इसका कारण सिर्फ कथ्य न होकर इसका शिल्प भी है जिसमें पहले फ्रेम में चारुलता अपने दूरबीन से देखती है तथा कई ऐसे दृश्य हैं जो आपको बिल्कुल अनूठा लगता है। चाहे फिल्म का छायांकन हो ,सम्पादन हो ,गीत हो ,दृश्य-विन्यास, प्रकाश का प्रयोग हो तथा सबसे महत्वपूर्ण अभिनय हो इस फिल्म में चारु के रूप में माधवी मुखर्जी के अभिनय और सुब्रत मित्र और बंसी चन्द्रगुप्ता के काम को बहुत सराहा गया है। इसे राय की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है। राय ने ख़ुद कहा कि ‘इसमें सबसे कम खामियाँ हैं और यही एक फ़िल्म है जिसे वे मौका मिलने पर बिलकुल इसी तरह दोबारा बनाएंगे।‘  इसके बाद उपन्यास ‘घरे बाइरे’ को इसी नाम से फिल्म के रूप में निर्मित कर सत्यजीत राय अमर हो गये। यह एक पूर्णतः राजनीतिक और दार्शनिक फिल्म है, जिसके केंद्र में प्रेम और दाम्पत्य अपनी निरंतरता में जारी रहता है। ‘घरे बाइरे’  उपन्यास को ठाकुर ने स्वदेशी आंदोलन के समय लिखा था । जिसे  सत्यजीत राय  ने  1940 के दशक में इसकी पटकथा तैयार की, लेकिन इससे पहले उन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘पाथेरपांचाली’ बनाई। इसे बहुत बाद में पूर्ण किये ।

        सत्यजीत राय उस महान परम्परा के संवाहक होने के साथ-साथ उनमें नवसृजन के नवाचार को जोड़कर समृद्ध करते हुये गति प्रदान करने की प्रगल्भता थी । इनकी भी मृत्यु होने पर कोलकाता शहर लगभग ठहर गया था और हज़ारों लोग इनके घर पर श्रद्धांजलि देने और शवयात्रा में लाखों जनसमूह उसी तरह से शामिल हुआ, जिस प्रकार से रवींद्रनाथ की शवयात्रा में। इस प्रकार से रवींद्रनाथ का साहित्य, संस्कृति और दर्शन सत्यजीत रे के फिल्मी कैरियर में बहुत ही गहराई के साथ अंतर्निहित है। रवींद्रनाथ की कहानी, उपन्यास, चित्रकला, कविता, नृत्य, नाटक और अन्य समस्त विधाओं का राय ने अपनी फिल्मों और अन्य सृजनात्मक कार्यों में प्रयोग किया है। उनके समस्त कार्यों में रवींद्रनाथ दृश्य-अदृश्य धारा की तरह अंतःप्रवाहित हैं। 

-डॉ . सुरभि विप्लव
सहायक प्रोफेसर ,प्रदर्शनकारी कला विभाग (फिल्म एवं थियेटर)
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ,वर्धा
संपर्क -9404823570 ईमेल – drsurabhibiplove@gmail.com